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य॒दार॒मक्र॑न्नृ॒भवः॑ पि॒तृभ्यां॒ परि॑विष्टी वे॒षणा॑ दं॒सना॑भिः। आदिद्दे॒वाना॒मुप॑ स॒ख्यमा॑य॒न्धीरा॑सः पु॒ष्टिम॑वहन्म॒नायै॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadāram akrann ṛbhavaḥ pitṛbhyām pariviṣṭī veṣaṇā daṁsanābhiḥ | ād id devānām upa sakhyam āyan dhīrāsaḥ puṣṭim avahan manāyai ||

पद पाठ

य॒दा। अर॑म्। अक्र॑न्। ऋ॒भवः॑। पि॒तृऽभ्या॑म्। परि॑ऽविष्टी। वे॒षणा॑। दं॒सना॑भिः। आत्। इत्। दे॒वानाम्। उप॑। स॒ख्यम्। आ॒य॒न्। धीरा॑सः। पु॒ष्टिम्। अ॒व॒ह॒न्। म॒नायै॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:33» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब माता पिता आदि के शिक्षा विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋभवः) बुद्धिमान् जन (यदा) जब (पितृभ्याम्) विद्वान् माता और पिता से (परिविष्टी) सब प्रकार विद्या को व्याप्त होता जिससे उस क्रिया और (वेषणा) व्याप्त पदार्थ से तथा (दंसनाभिः) उत्तम कर्मों से (देवानाम्) विद्वानों के (सख्यम्) मित्रपन को (अरम्) पूरा (अक्रन्) करते हैं (आत्, इत्) तभी वे (धीरासः) योग से युक्त ध्यानवाले (मनायै) मानने योग्य विद्या के लिये बुद्धि को (उप, आयन्) प्राप्त होते और (पुष्टिम्) सम्पूर्ण अवयवों की पुष्टि को (अवहन्) प्राप्त होते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य बाल्यावस्था में पाँचवें वर्ष से माता की शिक्षा और आठवें वर्ष से लेकर पिता की शिक्षा को और अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त आचार्य्य की शिक्षा को ग्रहण करते हैं, वे ही विद्वान्, बुद्धिमान्, धार्मिक, बहुत काल पर्य्यन्त जीवने और संसार के कल्याण करनेवाले होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मातापित्रादिशिक्षाविषयमाह ॥

अन्वय:

ऋभवो यदा पितृभ्यां परिविष्टी वेषणा दंसनाभिर्देवानां सख्यमरमक्रन्नादित्ते धीरासो मनायै बुद्धिमुपायन् पुष्टिमवहन् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यदा) (अरम्) अलम् (अक्रन्) कुर्वन्ति (ऋभवः) प्राज्ञाः (पितृभ्याम्) विद्वद्भ्यां जननीजनकाभ्याम् (परिविष्टी) सर्वतो विद्या व्याप्नोति यया तया क्रियया (वेषणा) व्याप्तेन पदार्थेन (दंसनाभिः) उत्तमैः कर्मभिः (आत्) (इत्) एव (देवानाम्) विदुषाम् (उप) (सख्यम्) मित्रभावम् (आयन्) प्राप्नुवन्ति (धीरासः) योगयुक्ता ध्यानवन्तः (पुष्टिम्) सर्वाऽवयवदृढत्वम् (अवहन्) प्राप्नुवन्ति (मनायै) मन्तव्यायै विद्यायै ॥२॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या बाल्यावस्थायामापञ्चमाद् वर्षान्मातृशिक्षामाष्टात् संवत्सरात् पितृशिक्षामष्टाचत्वारिंशाद् वर्षादाचार्य्यशिक्षां च गृह्णन्ति त एव विद्वांसो मेधाविनो धार्मिका चिरञ्जीविनो जगत्कल्याणकरा भवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे बाल्यावस्थेमध्ये पाचव्या वर्षांपर्यंत आईकडून शिक्षण घेतात, आठव्या वर्षांपर्यंत वडिलांकडून व अठ्ठेचाळीस वर्षांपर्यंत आचार्यांकडून शिक्षण ग्रहण करतात तेच विद्वान, बुद्धिमान, धार्मिक, दीर्घायू बनून जगाचे कल्याण करणारे असतात. ॥ २ ॥